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Saturday, April 3, 2021
भगवान ऋषभदेव ने मानव जाति को सिखाई स्वावलम्बन की कला
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जैन परम्परा में मान्य चैबीस तीर्थंकरों की श्रृखंला में भगवान ऋषभदेव का नाम प्रथम स्थान पर है और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं। वेद जो विश्व के प्राचीनतम लिपिबद्ध धर्म ग्रंथों में से एक है में तथा श्रीमद्भागवत इत्यादि में आये भगवान ऋषभदेव के उल्लेख अलग अलग नामों से उल्लिखित है। किसी रूप में विश्व की लगभग समस्त संस्कृतियों में ऋषभदेव की उपस्थिति उनकी सर्वमान्य स्थिति और जैनधर्म की प्राचीनता को व्यक्त करती है। भगवान ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के उन्नायक के रूप में बल्कि विश्व मानव विकास की प्रथम कड़ी के रूप प्रतिष्ठित करते हैं। भगवान ऋषभदेव ने मानव जाति को स्वावलम्बन की कला सिखाई, पुरुषार्थ का उपदेश दिया।
जैन मान्यतानुसार भगवान ऋषभदगव ने ही असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट क्रियाओं की शिक्षा दी।
1. असि - असि का अर्थ तलवार है। जो देश की रक्षा के लिए तलवार लेकर देश की सीमा पर खड़े रहकर देश की रक्षा करते हैं, ऐसे सैनिक एवं नगर की रक्षा के लिए भी सिपाही एवं गोरखा आदि रहते हैं।
2. मसि - मसि अर्थात् स्याही। स्याही-कलम से लेखा-जोखा रखने वाले, मुनीमी करने वाले, अमानत रखना-देना आदि।
3. कृषि - जीव हिंसा का ध्यान रखते हुए खेती करना अर्थात् अहिंसक खेती करना, अनाज उपजाना एवं पशुपालन करना।
4. विद्या - बहतर कलाओं को करना अथवा शैक्षणिक कार्य करना।
5. शिल्प - सुनार, कुम्हार, चित्रकार, कारीगर, दर्जी, नाई, रसोइया, मूर्तिकार, मकान, मन्दिर बनाना, नक्शे बनाना अदि।
6. वाणिज्य - सात्विक और अहिंसक व्यापार, उद्योग करना।
इन शिक्षाओं के अतिरिक्त सम्राट ऋषभदेव प्रजा का पालन करने के लिए सबसे पहले प्रजा की सृष्टि का विभाग करते हुए वर्ण व्यवस्था की, फिर उनकी आजीविका के नियम बनाये, जिससे प्रजा अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लंघन न कर सके। आदिब्रह्मा ने अपनी दोनों भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की थी अर्थात् उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश दिया था, क्योंकि जो हाथों में तलवार आदि लेकर सबल शत्रुओं के प्रहार से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे ही क्षत्रिय कहलाते हैं। तदनन्तर प्रभु ने अपने ऊरुओं से यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश आकर धन कमाना व्यापार करना सिखलाकर वैश्यों की रचना की, व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है। बुद्धिमान् ऋषभदेव ने दैन्यवृत्ति में तत्पर रहने वाले शूद्रों की रचना की, उत्तम वर्णों की सेवा-शुश्रूषा आदि करना ही उनकी आजीविका है। और ब्राह्मण वर्ण की रचना की गई। सम्राट ऋषभदेव ने उस समय यह नियम बनाए कि शूद्र, शूद्र की आजीविका ही करे, अन्य न करे। वैश्य वैश्यवृत्ति ही करे कदाचित् शूद्रवृत्ति भी कर सकता है। क्षत्रिय, क्षत्रिय की आजीविका ही करे, कदाचित् वह भी शूद्र और वैश्य की कर सकता है किंतु अपनी-अपनी इन आजीविकाओं को छोड़कर जो कोई भी अन्य की वृत्ति-आजीविका को करेगा, वह राजाओं द्वारा दण्डनीय होगा और यदि ऐसा नहीं करेंगे तो वर्णसंकर हो जावेगा।
इसी प्रकार ऋषभदेव ने प्रजा के योग (नवीन वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की रक्षा के लिए ‘हा, मा, और धिक्’ इन तीन दण्डों की व्यवस्था कर दी। दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना और सज्जन पुरुषों का पालन करना यह व्यवस्था भोगभूमि में नहीं थी क्योंकि उस समय पुरुष निरपराधी होते थे और अब कर्मभूमि में अपराध शुरू हो जाने से दण्ड व्यवस्था की आवश्यकता हो गई थी।
अब प्रश्न उठता है कि भगवान ऋषभदेव को वर्ण व्यवस्था और षट क्रियाओं की शिक्षा क्यों देना पड़ी, इससे पहले क्या व्यवस्था थी।
जैन मान्यतानुसार उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के छह छह भेद हैं। वर्तमान में अवसर्पिणी के छह कालों में पंचम काल चल रहा है। छह कालों में से प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में क्रम से उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। भोगभूमि में 10 प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं, इन्हीं कल्पवृक्षों से मानव को अपने दैनिंदिन भोग-उपभोग की सामग्री प्राप्त होती है, जिस कारण से आपसी कलह, लूटपाट, ऊंचनीच आदि के अवसर ही नहीं रहते थे। तृतीय काल के अन्त में ये कल्पवृक्ष नष्ट होने लगते हैं तव प्रजा अपने सम्राट से आजीविका के साधन पूछती है और ऋषभदेव वर्ण व्यवस्था और षट क्रियाओं की शिक्षा देते हैं।
अयोध्या नगरी में जन्मे ऋषभदेव राजा नाभिराय के पुत्र थे, इनका विवाह यशस्वती और सुनन्दा नामकी दो कन्याओं से होता है। पिता नाभिराय ने ऋषभदेव का राज्याभिषे कर सन्यास धारण कर लिया। ऋषभदेव के दो पुत्र भरत और बाहुबली के साथ 98 अन्य पुत्र और दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी हुई जिन्हें उनके द्वारा अथाह ज्ञान दिया गया। ब्राह्मी को लिपि विद्या दी जो आज भी ब्राह्मी लिपि नाम से ख्यात है और सुदरी को अंकविद्या प्रदान की जो सभी लिपियों-भाषाओं में प्रयुक्त होती है। ऋषभदेव ने गृहस्थ में रहकर समस्त ज्ञान दिया और जनमानस को स्वावलम्बन युक्त जीवन जीने की कला सिखाई। मानव के मन में भ्रातृभाव की ज्योति जगाई और अन्त में अपने बड़े बेटे चक्रवर्ती भरत को राज्य देकर सन्यास धारण किया और अनेक मानव भी गृह त्याग कर इनके साथ ऋषि बन गये। जो ऋषभ से ऋषि परम्परा का आरम्भ हुआ और सन्यास धारण करने से शरीर से शिव हो गये। भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ।
इस प्रकार तीर्थंकर ऋषभदेव मानव जाति को स्वावलम्बन की कला सिखाई, पुरुषार्थ का उपदेश दिया, उन्होंने पर्यावरण संतुलन महिला साक्षरता तथा स्त्री समानता पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। भगवान ऋषभदेव की शिक्षाएं मानवता के कल्याण के लिए हैं, उनके उपदेश आज भी समाज के विघटन, शोषण, साम्प्रदायिक विद्वेष एवं पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में सक्षम एवं प्रासंगिक हैं।
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