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Wednesday, June 16, 2021

कविता - उलझने

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कविता - उलझने
शालू अवस्थी

बस यूं ही आज, उलझी जो उलझने तो
हर बार सुलझाने की तमाम कोशिशों से
फिर बार-बार उलझी, बचपन में मासूम ख्वाहिशें...
पंख फैलाए, ललचाती उलझनें
कब मिले क्या पाऊ कैसे सुलझाऊ
अलहड़ता से निकल फूलों से खिलते
रंगीन सुहावने सपनों की उलझन
सुलझे जितनी हर बार उतनी उलझे
प्रीत का बंधन उन्मुक्त चंचल चितवन
रूठी उम्मीदों से समझौतों की उलझनें...
चाहे तो मन भी...
नाम से हो पहचान कोई
जिम्मेदारियों और बंधनों की उलझनें
दबे हुए शोर मचाते, बेबसी पर इठलाते 
उछल-उछल कर मुझे लुभाते
भीतर कैद अरमानों की उलझनें
तीन पहर तो बीत गए
भोर खड़ी है अगले पहर
तोड़ उलझनों का चक्रव्यूह
मन में जोश की ज्योत जगा
भर ऊंची उड़ान खुले आसमान में
उलझी उलझनों से उपर
सुलझे सपनों के आनंद की डोर सजा...

घातक रिपोर्टर, राकेश दुबे, बरेली द्वारा

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