समाप्त हो रही सावन के झूले की रिवाज। - Ghatak Reporter

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Sunday, July 31, 2022

समाप्त हो रही सावन के झूले की रिवाज।

समाप्त हो रही सावन के झूले की रिवाज।

समाप्त हो रही सावन के झूले की रिवाज।

घातक रिपोर्टर, शिवेंद्र सिंह सेंगर, उत्तर प्रदेश।
औरैया। सावन माह आते ही आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं कजरी गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परंपरा जरूर अभी भी निभाई जा रही है।सावन का महीना आते ही गांव और शहर के मोहल्लों में झूले पड़ जाते थे। सावन की मल्हारें गूंजने लगती थी। ग्रामीण युवतियां व महिलाएं एक जगह देर रात तक श्रावणी गीत गाकर झुला झूलने का आनंद लेती थीं। वहीं जिन नवविवाहिताओं के पति दूरस्थ स्थानों पर होते थे उनकों इंगित करते हुए विरह गीत सुनना अपने आप में लोककला का ज्वलंत उदाहरण हुआ करता था। झूले की पेंगो पर नवयुवितयों का अल्हड़ गायन शैली अब यादों में सिमट कर रह गई है। सामाजिक समरसता की मिसाल, जाति-पाति के बंधन से मुक्त अल्हड़पन लिए बालाओं की सुरीली किलकारियां भारतीय सभ्यता का वह अंदाज ही निराला था। सावन को अपनी मस्ती में सराबोर देखना हो तो किसी गांव में चले जाइए।

समाप्त हो रही सावन के झूले की रिवाज।

जहां पेड़ों की डालों पर झूला डाले किशोरियां, नवयुवतियां या फिर महिलाएं अनायास ही दिख जाती थीं। सावन के ये झूले मस्ती और अठखेलियों का प्रतीक होते थे। पूरे गांव में आम, नीम, इमली के पेड़ों पर कई जगह झूले डाले जाते थे। इस पर युवक व बच्चे मस्ती किया करते थे। विशेष बात यह थी कि इस झूले पर सभी जाति के लोग झूलते। बुद्धिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सूख सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहे हैं।आधुनिकता की चकाचौंध में प्रसिद्ध कजरी व रिमझिम फुहारों के बीच झूला झूलने की परंपरा अब अतीत की यादें बनती जा रही हैं। कजरी के रस में डूबने की बजाए महज कुछ प्रतियोगिताओं का आयोजन कर पूर्व की परंपराओं को मात्र निभाया जा रहा है। सावन मास चढ़ते ही जगह-जगह सावन के फुहारों की बीच झूला झूलती महिलाएं प्रसिद्ध कजरी अपने बलमा के जगावे सांवर गोरिया, चूड़िया से मार मार के तथा कइसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरी आई ननदी आदि गीत गाते हुए बरबस ही सबका मन मोह लेती थी। इन गीतों में सौंदर्य, श्रृंगार, भावों की अभिव्यक्ति होती थी। अश्लीलता का नामोनिशान नहीं होता था, लेकिन एक दशक से ये सारी लोक परंपराएं धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं। कुछ महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों में इस परंपरा को जीवंत रखने के लिए झूले लगाकर कजरी आदि गीत गाकर सावन मास का एहसास कराती हैं।

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