रायसेन/सिलवानी, दान देने में दाता का अभिमान नहीं होना चाहिए - पंडित मनोज शास्त्री। - Ghatak Reporter

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Thursday, September 2, 2021

रायसेन/सिलवानी, दान देने में दाता का अभिमान नहीं होना चाहिए - पंडित मनोज शास्त्री।

दान देने में दाता का अभिमान नहीं होना चाहिए - पंडित मनोज शास्त्री।

मित्रता निस्वार्थ होना चाहिय, दुःख में साथ दे वही मित्र है, सुख में तो दुश्मन भी मित्र होता है।

रायसेन/सिलवानी, दान देने में दाता का अभिमान नहीं होना चाहिए - पंडित मनोज शास्त्री।

घातक रिपोर्टर, जसवंत साहू, रायसेन/सिलवानी।
सिलवानी। ग्राम पठा में श्रीमद् भागवत कथा के समापन दिवस पर व्यासपीठ से धर्म प्रेमी जनों को संबोधित करते हुए पंडित मनोज शास्त्री ने कहा कि व्यक्ति को अपने जीवन में दान देना चाहिए, लेकिन दाता का अभिमान बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। दान देने के बाद उसका प्रचार-प्रसार कदापि नहीं करना चाहिए, ऐसा करने से हमको पाप का भागी होना पड़ता है। श्रीमद्भागवत में वर्णन आया है कि व्यक्ति जो दान देकर उसका बखान करते हैं वह नर्क गामी होते हैं। व्यक्ति को चाहिए कि जो सुपात्र है, जिसको धन की आवश्यकता है, जिसके पास रहने को घर नहीं है, जिसके बालक-बालिकाओं की शिक्षा व्यवस्था नहीं हो पा रही है, कोई व्यक्ति अस्वस्थ है, कोई व्यक्ति संकट में है, ऐसे व्यक्ति को दान देकर उसका सहयोग करना परम पुण्य दाई है। हमारी परंपराओं में धार्मिक कार्यों में भी दान देने की पवित्र परंपरा रही है। उन धार्मिक आयोजनों में भी बढ़-चढ़कर दान देना चाहिए लेकिन किसी भी माध्यम से दान देने का प्रचार-प्रसार कदापि नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि शास्त्रों में धन की तीन गतियां बताई गई हैं पहला दान देना, दूसरा स्वयं उपभोग करना और यदि आपने यह दोनों कार्य नहीं किए तो तीसरी गति धन की नाश बताई गई है। वह अवश्य हो जाएगी। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि बहुत धर्म निष्ठा के साथ, कर्म निष्ठा के साथ, धन का उपभोग करके इस मानव जीवन को धन्य बनाने का निरंतर प्रयास करना चाहिए। आगे उपाध्याय जी ने कहा कि भगवान श्री कृष्ण के रुकमणी जी के साथ विवाह के बाद सोलह हजार एक सौ सात रानियों के साथ और विवाह करते हैं और वह द्वारिकाधीश के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता का वर्णन करते हुए कहा कि भगवान श्री कृष्ण की बाल अवस्था के मित्र सुदामा जी अपने जीवन में घोर अभाव ग्रस्त होकर अपना जीवन यापन कर रहे थे। उनकी अत्यंत दीन दशा को देखकर उनकी पत्नी सुशीला ने उनसे आग्रह किया कि आपके मित्र द्वारिकाधीश श्री कृष्ण नारायण के परम अवतार हैं। आप उनके पास जाकर अपनी इस दीन-दशा से मुक्ति के लिए आग्रह कीजिए क्योंकि नारायण समस्त जगत के पालनहार हैं। वह हमारा भी पालन करने का कोई प्रयत्न करेंगे, अपनी पत्नी की सलाह से सुदामा जी द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण से भेंट करने के लिए द्वारिका की ओर प्रस्थान करते हैं। हमारी संस्कृति में अतिथि सत्कार की बड़ी महिमा है। कहा गया है अतिथि देवो भव। जब श्री कृष्ण द्वारिकाधीश के महल के बाहर सुदामा जी पहुंचते हैं तो उन्होंने द्वारपालों से कहा कि भगवान श्रीकृष्ण से कहो कि मैं सुदामा उनकी बाल्यावस्था का मित्र उनसे भेंट करना चाहता हूं। श्री कृष्ण को जब संदेश पहुंचा की कोई सुदामा नामक ब्राह्मण आपसे मिलना चाहते हैं तो भगवान श्री कृष्ण उनके पास दौड़ पड़ते हैं और उनको देखकर उन्हें गले से लगा लेते हैं। महल में लाकर सम्मान पूर्वक उनको आसन पर बिठा कर उनके चरण धोने के लिए जल मंगवाते हैं। भगवान श्री कृष्ण करुणासागर हैं। सुदामा की दीन दरिद्र दशा को देखकर उनके हृदय की करुणा द्रवित हो जाती है और उनकी करुणा अश्रु के रूप में बह जाती है। जल को हाथ न लगाते हुए नेत्र से निकले अश्रुओं से वह सुदामा के चरणों को धो देते हैं।

रायसेन/सिलवानी, दान देने में दाता का अभिमान नहीं होना चाहिए - पंडित मनोज शास्त्री।

भगवान श्री कृष्ण की इस अनंत करुणा को देखकर समस्त द्वारिका वासी आनंदित होते हैं।सुदामा जी को समस्त वैभव, यश और समृद्धि से परमपिता परमेश्वर ने पूर्ण कर दिया और सम्मान पूर्वक उनका अतिथि सत्कार करके उनको गौरव प्रदान किया। जब सुदामा को समस्त वैभव प्राप्त हो गये तो उन्हें भी परमपिता परमेश्वर की कृपा का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया और वह स्वयं को धन्य निरूपित करने लगे। जब वह अपने नगर में पहुंचे तो उन्होंने परमात्मा की परम कृपा को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हुए अनेक धन्यवाद भगवान द्वारिकाधीश श्री कृष्ण को प्रेषित किए। इस कथा का आशय है भगवान श्री कृष्ण ने यह संदेश दिया कि मित्रता का धर्म सर्वोपरि है यह आत्मिक संबंध है। इसको श्रेष्ठता से व्यक्ति को अपने जीवन में निर्वाह करना चाहिए, मित्रता में किसी प्रकार का कोई स्वार्थ और कपट नहीं होना चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों पर श्री शास्त्री ने बोलते हुए कहा कि वर्तमान परिस्थितियां बड़ी जटिल हो गई हैं। यहां पर मित्रता में स्वार्थ आ गया है। यदि कोई स्वार्थ पूर्ति करना है तो व्यक्ति मित्रता के संबंध निरूपित कर लेता है और जब स्वार्थ पूर्ण हो जाता है तो मित्रता भी स्वयं नष्ट हो जाती है जबकि मित्रता इतनी शाश्वत इतनी पवित्र है कि उसमें स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। ऐसे मित्रों को देखने में पाप लगता है जो अपने मित्र को कष्ट में देखकर दुखी नहीं होते। यदि हमारा कोई मित्र कष्ट में है तो हमें भी सबसे पहले दुखी हो जाना चाहिए। उपाध्याय जी ने आगे कहा कि व्यक्ति को अपने जीवन में किसी की निंदा चुगली कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि हम यदि किसी की निंदा करेंगे तो उसके ज्ञात-अज्ञात पाप हमारे पास स्वयं ही आ जाएंगे। इसीलिए प्रयास यह हो कि हम किसी की निंदा न करते हुए सद मार्ग का आश्रय लेकर अपने जीवन को जीने का प्रयत्न करे। श्रीमद्भागवत महापुराण का अनुसरण करके मोक्ष का जो सर्वोच्च लक्ष्य है उसको प्राप्त करने का प्रयास करें। श्रीमद्भागवत मोक्ष देने वाला परम पवित्र ग्रंथ है जिसकी कथा श्रवण करने से महाराज परीक्षित को मोक्ष प्राप्त हो गया था और हमारे लिए शुकदेव जी ने भवसागर से पार होने वाली दिव्य कथा प्रदान की है। यह संसार सागर से पार होने का इस विकराल कलिकाल में कोई माध्यम है तो वह श्रीमद् भागवत महापुराण की दिव्य कथा है जिसके श्रवण मात्र से हमारी आत्मजागरण की प्रक्रिया अपने आप प्रारंभ हो जाती है इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह आत्म जागरण के कार्य में संलग्न होकर स्वयं की मुक्ति का मार्ग जीवन काल में ही प्रशस्त कर ले। कथा समापन के पूर्व समस्त समिति के पदाधिकारियों ने धर्म प्रेमी सज्जनों भक्ति मति माताओं का आभार व्यक्त किया।

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