“बुर्के की ओट”
बुर्के की ओट में छुपी थी साजिश,
चेहरे पर मासूमियत, भीतर पूरी दानवी साधिश,
जिसे होना था “माँ” जैसा आँचल,
उसी ने मासूम की अस्मत को कर दिया घायल।
दरिंदगी का चेहरा आज औरत बना,
इंसानियत भी रोई—समाज फिर शर्मसार हुआ।
छह दिन तक दरिंदे को सिगरेट पिलाई,
धुएँ में झोंक दी उसने अपनी ही नारी जाति की परछाईं।
जिस हाथ ने बचाना था, वही ज़ख्मों का कारण बना,
जिस गोद में आनी थी दुआएँ, वहीं मौत का डर पला।
बुर्के के पीछे छुपा ज़हर खुलकर सामने आया,
औरत ही औरत की दुश्मन बन गई—यह कैसा अन्याय?
सिगरेट के धुएँ में जलती रही इंसानियत,
मिट्टी भी रोई—“कैसी है ये हैवानियत!”
दुनिया ने देखा, पर किसी ने आवाज़ न उठाई,
बुर्का ही बुर्का चीख उठा—“मेरी आड़ में क्यों दरिंदगी छुपाई?”
काला चेहरा छुपा सकता है कपड़ा,
पर पाप की गंध छुपा नहीं पाया।
मासूम की चीखों से काँप उठा आसमान—
औरत होकर औरत ने ही दानवपन अपनाया।
आज दर्द लिखता है, शब्दों में खून टपकता है—
मासूम की चुप्पी भी सच्चाई चिल्लाकर बताती है:
“दुश्मन कोई और नहीं था…
मासूम का दुसमन नारी में ही बैठा था।”




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